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न जाने क्यों
जब प्रश्नों के अपने ही उत्तर
बदलने लगते हैं
अच्छे नहीं लगते।
मेरे प्रश्न
मुझ पर हँसते हैं
मैं हैरान हो
अपना वजूद कुरेदने लगता हूँ
अतीत
कितना सुखद प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
न जाने क्यों
मेरे उत्तर
बूढ़े बन जाते हैं धीरे-धीरे
नकारते चले जाते हैं
अपनी ही स्वीकृतियाँ
अपने ही दावे
मेरा बच्चा मन
मेरे भीतर मचलने लगता है
मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो
अपने उत्तर समेटने लगता हूँ
बचपना भला प्रतीत होता है न !
ऐसा क्यों होता है ?
बचपना ही भला होता है …
आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है …अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें …आभार .http://charchamanch.uchcharan.com/
अन्तर्द्वन्द की सहज अभिव्यक्ति ।
जब प्रश्न आप पर हँसने लगें तो मान लीजिये कि सच की राह आगत है।
बहुत सुंदर कविता जी धन्यवाद
बचपन सरल जो है… भला तो होगा ही!सुन्दर अभिव्यक्ति!
एक शेर हैं , शायद इकबाल का , '' अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने-अक्ल लेकिन कभी कभी उसे तनहा भी छोड़ दे ! '' जब हम अक्ल की पहरेदारी को ढीली करेंगे – चाहे आजिच आकर या शौकिया – तो दिल सबसे पहले बच्चा ही बनना चाहेगा न , बचपना की ओर लौटना चाहेगा . यह गाना अकारण नहीं फेमस हो गया कि 'दिल तो बच्चा है न' !! इसलिए 'एल्फेड्ली' वाले प्रचार के अंदाज में कह रहा हूँ , 'दुबारा न पूछना' सर जी 🙂 , कि —'' बचपना भला प्रतीत होता है न !ऐसा क्यों होता है ? ''''आनंद की यादों'' को अब प्रिंट-आउट लेकर देखूंगा ! ज्यादा स्क्रीन नहीं देख पाइत ! आभार !
देवेन्द्र जी, ज्ञान और विवेक जटिलता पैदा करते हैं, और जटिलता सहजता को समाप्त करती हैं.देखिये, एक छोटा बच्चा बेवजह मुस्कुरा देता है! सुन्दर रचना के लिए आपका साधुवाद. ब्लॉग पर पधारकर अपना मार्गदर्शन जरुर दें"आप भी आईये,हमें भी बुलाते रहिये,दोस्ती बुरी बात नहीं,दोस्त बनाते रहिये"पुनः आपका साधुवाद
मेरे लिए तो अब लगता है कि उत्तर ढेर सारे हैं मगर उनके प्रश्नों को ही ढूंढ नहीं पा रहा हूँ ..समय के बियाबान में कहीं खो से गए लगते हैं !
Ek anuttrit prashnn……sr publishing ke baad ek bar yadi post ko dubara edit kr liya jaay to spacing wgairh ki problem solv ho sakti hai.abhaar……….
मासूमियत भरा , तनाव मुक्त , समस्याओं से इतर जीवन , भला क्यों प्रतीत नहीं होगा 🙂
क्या, क्यों किसलिए, सुलझे तो कैसे,जवाबों से ही निकलते सवाल ये ;)सोच सोच कर सोचा यह है की सोचना फ़िज़ूल है, इसलिए अब नहीं सोचते, पर देखा जाए तो ये नतीजा भी सोचने से ही निकला, इसलिए सोचने की कुछ सार्थकता भी है 😉
sundar rachna………..badhai ho
मन में उतःने वाले द्वंद्व को अच्छे शब्द दिए हैं ..
यैसा ही तो होता है हर किसी के साथ.लगता है प्रश्न करना और उत्तर तलासना ही छोड़ देना चाहिए.
देवेन्द्र भाई, बचपन के बहाने आपने बहुत गहरी बात कर दी। इस सार्थक अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई।———छुई-मुई सी नाज़ुक… कुँवर बच्चों के बचपन को बचालो।
… prabhaavashaalee rachanaa !!!
ये अन्तर्द्वन्द के प्रश्न उत्तर तो जीवन भर पीछा नही छोडते। बचपन निस्सन्देह अच्छा होता है इस लिये दुख मे इन्सान यही कामना करता है। अच्छी रचना। बधाई।
बचपन को याद करा देने वाली सुन्दर रचना के लिए बधाई।
उत्तर अक्सर कभी कभी प्रश्न के सामने कतराते भी हैंऔर फिर बचपन तो शायद प्रश्नों और उत्तरों से परे भी तो होता हैशानदार अभिव्यक्ति और एहसास
आपकी यह रचना बहुत ही बढिया लगी.आभार
मानव के अंतर्द्वंद को प्रदर्शित करती एक सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति.
कुछ प्रश्नों के उत्तर कभी नहीं मिलते.
सुन्दर रचना के लिए आपका साधुवाद.
सच है समय की साथ साथ पैभाशायें और उतार भी दोनों ही बदल रहे हैं … सत्य भी बदल रहा है … देखें सूरज चाँद कब तक दिशा नहीं बदलते
सार्थक अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई।
aisa to pata nahi kyon hota hai.par hota hai… 🙂
इस सबके बाद भी बावजूद भी अहर्निश शुभकामनाएं !
देवेन्द्र जी,बहुत सुन्दर पोस्ट है आपकी……कई बार कई प्रश्नों को अनसुलझा ही छोड़ देना चाहिए |