कार्तिक मास में
बनारस के गंगातट पर
सुंदर
और भी सुंदर
दिखी हैं
माँ गंगे।
करवा चौथ के बादसे
रोज ही
रोज ही
लगने लगते हैंमेले
तट पर
कभी नाग नथैया
कभी डाला छठ
कभी गंगामहोत्सव
तो कभी
देव दीपावली।
स्वच्छ होनेलगते हैं
बनारस के घाट
उमड़ता है जनसैलाब
घाटों पर
कहीं तुलसी,पीपल के तले
तो कहीं
घाटों के ऊपर भी
जलते हैं
मिट्टी के दिये
बनकर
आकाश दीप।
अद्भुत होती है
घाटों की छटा
कार्तिकपूर्णिमा के दिन।
कहते हैं
मछली बनकर जन्मेथे कृष्ण,
त्रिपुरासुर कावध किया था महादेवजी ने,
जन्मे थे गुरूनानक,
कार्तिकपूर्णिमा के ही दिन
तभी तो
उतरते हैं देवभी
स्वर्ग से
बनारस के घाटोंपर
मनाते हैं दिवाली
जिसे कहते हैंसभी
देव दीपावली।
माँ की सुंदरतादेख
कभी कभी
सहम सा जाता है
मेरा अपराधी मन
यह सोचकर
कि कहीं
कार्तिक मास में
वैसे ही सुंदरतो नहीं दिखती माँ गंगे !
जैसे किसीत्योहार में
मेरे घर आने पर
मुझे आनंद में देख
खुश हो जाती थीं
और मैं समझता था
कि बहुत सुखी है
मेरी माँ।
…………………………….
(चित्र गूगल से साभार)
(चित्र गूगल से साभार)
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गंगा माँ को अलग-अंदाज़ में याद किया,दर्द भी बयान किया पर इलाज़ शायद फिर भी नहीं है !तीज-त्यौहार और नदी हमारे जीवन का अंग हैं और इन्हें ही हम बिसरा रहे हैं !भावपूर्ण कविता !
माँ गंगा की अद्भुत छटा बनारस के घाटों पर उनके अकेलेपन का अहसास. बहुत सुंदर चित्र प्रस्तुत किया आपने इस कविता के माध्यम से. बधाई.
वाह, आह!जो भी कहो, धन्य हैं वे जो रोज़ गंगा माँ का दर्शन-सुख पाते हैं!
पाण्डेय जी, गंगा और बनारस एक दूसरे के पूरक लगते हमें सुंदर रचना आभार
मन माने या न माने , हालात तो कुछ ऐसे ही हैं ।लेकिन कार्तिक मास में ही सही , चलिए कभी तो लगती है सुन्दर मां गंगे ।
सबको प्रसन्न होते हुये देखकर प्रसन्न होती है माँ।
gangaa ka apurv varnan
माँ गंगा के मन का हाल बहुत खूबसूरती से बयान किया है।
har har gange, jai jai gange..jai hind jai bharat
कविता का किनारा आते-आते आपने धोबी पाट ही लगा दिया, देवेन्द्र भाई!
देवेन्द्र जी, अंतिम पंक्तियाँ विशेष रूप से मन को छू गईं।पुण्य-लाभ मिलता रहे आपको भी और आपके माध्यम से हम भी लाभान्वित हो रहे हैं।
गंगा के महात्म्य को बखूबी दर्शाया है … बहुत सुन्दर
Ganga ke prem me rangi sunder rachna .
जय माँ गंगे ….
अति-सुन्दर अभिव्यक्ति.
मां गंगे हर मौसम में मां ही हैं, और मां तो सुन्दर होती ही है। हां मां के आंचल को हम गन्दा न करें, यह हमारा कर्तव्य है।विद्यापति जी का गीत याद आ रहा है,‘बड़ सुख सार पउल तु तीरे’
@ प्रिय देवेन्द्र जी १,शुरू में लगा…ये लो…अपने पाण्डेय जी भी गये काम से , और लोग क्या कम थे जो अपने ब्लागरीय धत्कर्म को पापहारिणी , जीवतारिणी , पुण्यसलिला , त्रिपथगा , ध्रुव नंदा , मंदाकिनी , विष्णु पगा , ब्रह्मकमंडल वासिनी , शिवजटा निवासिनी,सुरसरिता , जाह्नवी , में नित्य प्रति आरोहित कर अपना बौद्धिक अस्तित्व बनाये होने की जुगत में बने रहते हैं ! यहाँ तक कि कविता की अंतिम चार पंक्तियों के पूर्व तक मैं भी इसी भ्रम में जिया किया पर …आप तो आप हैं जिन्हें मैंने प्रियवर ऐसे वैसे ही तो नहीं स्वीकारा था ! आप की जय हो ! आपका दर्शन अंदर तक भिगो गया मुझे !कविता का अंत कविता शुरुवात कर गया !@ प्रिय देवेन्द्र जी २,देवि गंगा के सानिध्य में भूपेन दा को शत शत नमन !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!देवोत्थान पर्व की शुभकामनाएँ!
अंतिम पंक्तियों ने तो गजब ढा दिया
देवेन्द्र जी, बहुत उम्दा रचना…सिर्फ़ धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, समाज के हर वर्ग के लिए गंगा जल की पवित्रता नितांत आवश्यक है.
आदरणीय अली सा…बहुत दिनो बाद आपका इतना जोरदार आशीर्वाद मिला। मन प्रसन्न हो गया। आपका यह आशीर्वाद अनमोल है मेरे लिए। माँ गंगा को अर्पित आपकी शब्दांजलि से अभिभूत हूँ ही। इस कविता को लिखने में कल कुछ नहीं पढ़ पाया। आज भी इसे पोस्ट कर घूमने चला गया। लौट कर अखबार पढ़ा..भूपेन दा नहीं रहे। लगा कि माँ गंगा ने अपना सच्चा सपूत खो दिया। माँ गंगा से प्रश्न पूछते-पूछते थक कर एक बालक ने सदा के लिए माँ की गोद में विश्राम पा लिया। भूपेन दा, माँ गंगा के लिए उनके गाये सिर्फ एक गीत के कारण सदा सदा के लिए अमर हो चुके हैं। मेरी कविता पढ़कर आपको उनकी याद आई, यह भी उनके द्वारा गाये गये उसी गीत का परिणाम है। अपने साथ मेरी भी विनम्र श्रद्धांजलि शामिल कर लें।..आभार।
जय हो गंगा मैय्या की।
अति-सुन्दर अभिव्यक्ति.
सुनने में आ रहा है गंगा का अस्तित्व ख़तरे में है .उद्गम की हिमानियाँ सिमटती जा रही हैं ,और नगरों ने जीवन-जल विकृत कर डाला है.आगे क्या होगा समझ में नहीं आता.
हर-हर गंगे,जय हो.
पांडे जी!शुरू से अंत तक बांधकर रखा और अंत में बांधकर एक ऐसा द्रश्य दिखा दिया जिसके कारन पटना जाकर भी मैं माँ के दर्शन करने नहीं जाता… उस छिन्न्वस्त्रा गंगा को देखकर दुःख होता है जिसकी गोड में हम हर हर गंगे बोलकर स्नान करते थे आज उसकी छाती पर हल चला रहे हैं लोग… हमारे यहाँ तो त्यौहारों पर भी नहीं आती माँ, बहुत दूर हो गयी हैं!!
गंगा माँ पर बहुत अच्छी कविता लिखी है,उत्कृष्ट भाव !कृपया पधारें । http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html
ज़बरदस्त…..बेहतरीन…….हमने एक बार हरिद्वार के तट पर शाम को गंगा की आरती देखि थी……….मन को मोह लेने वाला दृश्य था |
वाह …बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
बहुत सुंदर भावपूर्ण चित्रण… गंगा के घाट आँखों के समक्ष जीवंत हो गए… बहुत सुंदर
देवेन्द्र जी,..गंगा तट का सुंदर चित्रण… पोस्ट पसंद आई …मेरे नए पोस्ट वजूद पर स्वागत है
देव दीपावली … बनारस के घाट पर तो देखने का सौभाग्य नहीं मिला पर हरिद्वार में गंगा आरती देखी है कई बार … आपने पंक्तियों में गंगा के रूप और आज की त्रासदी, सामाजिक प्रदूषित बदलाव को बहुत बारीकी से छुवा है .. बधाई इस रचना पे …
अच्छी प्रस्तुति ….
माँ गंगा तो हममे भी बहती है. बहुत सुन्दर लिखा है.
जय गंगे!
कहीं कार्तिक मास में वैसे ही तो सुंदर नही दिखती माँ गंगे, जैसे मेरे घर आने पर मुझे आनंद में देख करखुश हो जाती थीं और मै समझता था सुखी है मेरी मां ।माँ का सुख तो होता ही है बच्चों की खुशी में । सुंदर भावपूर्ण कवितान ।
achhi rachna…………vaise hamara to desh hi tyohaaron ka hai…..bachpan me ek kavita padhi thi…"tyohaaron ka desh hmaara humko is se pyaar hai"…………..