पीपल

हम भटके
बेचैनी में
तुम
ठहरे
हातिमताई।

 

हम सहते
कितने लफड़े
तुमने
खड़े खड़े
बदले कपड़े !
मेहरबान तुम पर रहती
हरदम  ही
धरती माई।

 

ना जनम लिया ना फूँका तन
वैसे का वैसा ही मन
कर डाला
सुंदर तन
कहाँ से सीखी
चतुराई ?

 

बूढ़े हो
दद्दू से भी
दद्दू के दद्दू से भी
बच्चा बन
इठलाते हो
हमे पाठ पढ़ाते हो
अपनी चादर धोने में
हम ढोते
पूरा जीवन
खुद को निर्मल करने में
तुमको लगता
बस एक साल

 

सच बोलो !  
क्या पतझड़ में
नंगे होते
शरम नहीं आई ?
………………….

मूर्खता

मूर्खता सिद्ध करना कोई कठिन काम नहीं है। रात भर जाग कर, दूसरों के ब्लॉग में घूम-घूम कर बहुत सुंदर..बहुत खूब..वाह..! वाह..! आपकी प्रस्तुति बहुत अच्छी है। आदि लिखने से भी सभी समझ जायेंगे कि हम कितने उच्च कोटि के हैं ! मगर महामूर्ख सिद्ध करने के लिए इतना ही काफी नहीं हैJ वैसे भी हम ऐसे वैसे तो हैं नहीं, अंतर्राष्ट्रीय हैं। आखिर आज के दिन हमारी प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है। हमको इतनी घटिया कविता लिख कर दिखानी है जिसे पढ़कर श्रेष्ठ कोटि के ब्लॉगरों को भी वाह! वाह! लिखने में किसी प्रकार के शर्म का एहसास ना हो। तो लिखना शुरू करता हूँ एक उच्च कोटि की घटिया कविता जिसका शीर्षक पहले ही लिख देता हूँ.. मूर्खता ! यकीन मानिए अभी तक कविता का कोई प्लॉट मेरी उल्टी खोपड़ी में नहीं आया है। बस अपनी मूर्खता पर इतना विश्वास है कि मैं मूर्खता शीर्षक से कोई मूर्खता पूर्ण कविता तो लिख ही सकता हूँJ

 

मूर्खता

 

एक तमोली ने

उगते सूरज को देखा

और देखते ही समझ गया

कि सूरज

पान खा कर निकला है !

 

दिन भर

इस चिंता में डूबा रहा

कि सूरज ने पान

किसकी दुकान से खरीदा होगा ?

 

पान के पत्ते कतरते वक्त

क्रोध में डूबा

यही भ्रम पाले रहा

कि वह

पान के पत्ते नहीं

सूरज के

पंख कतर रहा है !

 

उसने

जब मुझे अपना दर्द बताया

तो मुझे लगा

उसके हाथ में

कैंची नहीं, कलम है !

और वह

सूरज का नहीं

कागज पर

किसी भ्रष्ट नेता का

पंख कतर रहा है !!

 

कहीं वह

पिछले जनम में

कवि तो नहीं था !

आखिर इतनी मूर्खता

दूसरा

कौन कर सकता है !!

……………………………..


मैं कह रहा था न ! मैं लिख सकता हूँ ? अब तो आप मान ही गये होंगे कि इस अंतराष्ट्रीय मूर्ख दिवस में अपनी भी कोई हैसियत है 

तेरे आगे सब नंगे।

तेरे आगे सब नंगे

हर गंगे, हर हर गंगे।

 

कोई पूरब से आता है

कोई आता पश्चिम से

कोई उत्तर से आता है

कोई आता दक्षिण से

 

धुलते हैं सब पाप उसी के

जो होते मन के चंगे।


एक नदी के नहीं ये झगड़े

तुमने माँ को बाँध दिया!

देख सको तो देखो पगले

ईश्वर ने दो आँख दिया!

 

कहीं धर्म के, कहीं चर्म के

चलते हैं गोरख धंधे।

 

जमके धोये हाथ उसी ने

जिसने गंगा साफ किया!

जिसके जिम्मे पहरेदारी

उसने गोता मार लिया!

 

माँ की गरदन टीप रहे हैं

कलजुग के अच्छे बंदे।

 

तनकर देखो तो मैली है

झुककर देखो तो दर्पण

तुम न करोगे तेरे अपने

कर देंगे तेरा तर्पण।

 

आ जायेगा चैन कि जिस दिन

मिल जायेंगी माँ गंगे।


हर गंगे, हर हर गंगे 

तेरे आगे सब नंगे।


…………………………………………..

मैं तो आम हूँ।

वह पीपल है 

वह नीम है

मैं तो आम हूँ।

 

फागुन में बौराती हूँ 

चैत में 

जनती हूँ टिकोरे

तपती हूँ

वैशाख-जेठ की दोपहरी

 

आता है मौसम

मेरा भी 

नहीं रहती

अनाथ

फल लगते ही 

मिल जाते हैं 

कई नाथ !

 

डाल में

लगते ही

टिकोरे

बाग में

छा  ही जाते हैं 

छिछोरे

 

देते हैं

प्यार का सिला

मारते हैं पत्थर

लूटते हैं

दोनो हाथों से  

फेंकते हैं

चखकर

 

कहते हो

तुम मुझे पुलिंग

किंतु नारी के समान हूँ

मैं तो आम हूँ।

 

मेरा मालिक

जब नहीं संभाल पाता मुझे

सौंप देता हैं

दूसरे को

पूरे का पूरा 

एक मुश्त

दूसरा

भोगता है मुझे

किश्त दर किश्त!

 

मैं हार नहीं मानती

मिट्टी मिलते ही

फिर से 

अंकुरित होना चाहती हूँ।

 

मेरे लिए

चलती हैं लाठियाँ

बहते हैं खून

सुख की खान हूँ

मैं तो आम हूँ।

 

जलती हूँ

जलायी जाती हूँ

काटकर

फूँक  सकते हो तुम मुझे

हवन कुण्ड में

पूर्ण पवित्रता के साथ

नहीं….

श्राप नहीं दुँगी

तुम्हारा घर

पवित्र कर जाऊँगी

 

नफरत नहीं

प्रेम करती हूँ सबसे

जन जन की शान हूँ

मैं तो आम हूँ।

 

एक टीस

उठती है उर में

पीपल, नीम के पास

जाते हैं ज्ञानी

मेरे पास

आते हैं

कभी लोभी

कभी कामी

 

आपके शौक की पहचान हूँ !

मैं तो आम हूँ।

 

 

छुट्टे पशुओं का आतंक।

आपके शहर में कितना है यह तो मैं नहीं जानता लेकिन बनारस में छुट्टे पशुओं का भंयकर आतंक है। नींद खुलते ही कानों में चिड़ियों की चहचहाहट नहीं बंदरों की चीख पुकार सुनाई पड़ती है। खिड़की से बाहर सर निकाले नहीं कि “खों…!” की जोरदार आवाज सुनकर ह्रदय दहल उठता हैं। आँख मलते हुए मुँह धोने के लिए उठे तब तक कोई बंदर कुछ खाने की चीज नहीं मिली तो आँगन से कूड़े का थैला ही उठाकर ‘खों खों’ करता छत पर चढ़कर चारों ओर कूड़ा बिखेरना प्रारंभ कर देता है। टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर देना, फोन के तार उखाड़ कर फेंक देना या छत की मुंडेर की ईंट से ईंट बजा देना सामान्य बात है। कई बार तो बंदरों के द्वारा गिराई गई ईंट से गली से गुजर रहे राहगीर के सर भी दो टुकड़ों में विभक्त हो चुके हैं। मनुष्यों ने बंदरों का आहार छीना अब बंदर अपने आहार के चक्कर में आम मनुष्यों का जीना हराम कर रहे हैं। वे भी आखिर जांय तो जांय कहाँ? उनके वन, फलदार वृक्ष तो हमने जै बजरंग बली’ का नारा लगाकर पहले ही लूट लिया है। गर्मी के दिनों में इन बंदरों का जीना मुहाल हो जाता है और ये हमारा जीना मुहाल कर देते हैं। रात में या भरी दोपहरी में तो नहीं दिखाई पड़ते, कहीं छुपे पड़े रहते हैं लेकिन सुबह- शाम भोजन की तलाश में एक छत से दूसरी छत पर कूदते फांदते नजर आ ही जाते हैं। किशोर बच्चों के लिए इनका आना कौतुहल भरा होता है। ले बंदरवा लोय लोय के नारे लगाते ये बच्चे बंदरों को चिढ़ाते-फिरते हैं। बंदर भी बच्चों को खौंखिया कर दौड़ाते हैं। इसी बंदराहट को देखकर  बड़े बूढ़ों ने कहा होगा..बच्चे बंदर एक समान। मामला गंभीर हो जाने पर बच्चों के पिता श्री, लाठी लेकर बंदरों को भगाने दौड़ पड़ते हैं। एक बच्चा छत में गहरी नींद सो रहा है। कब भोर हुई उसको पता नहीं। घर के और सदस्य नीचे उतर चुके हैं। उसकी नींद दूसरे घरों की छतों पर होने वाली चीख पुकार सुनकर खुल जाती है। देखता है, उसी के छत की मुंडेर पर बंदरों का लम्बा काफिला पीछे की छत से एक-एक कर आता जा रहा है और सामने वाले की छत पर कूदता फांदता चला जा रहा है। काटो तो खून नहीं। डर के मारे घिघ्घी बंध जाती है। सांस रोके बंदरों के गुजरने की प्रतीक्षा करते हुए मन ही मन हनुमान चालिसा का पाठ करने लगता है...जै हनुमान ज्ञान गुन सागर, जै कपीस तिहुँ लोक उजागर… ! कपि के भय से कपि की आराधना करता बालक तब कपि समान उछल कर नीचे उतर जाता है जब उसे ज्ञान हो जाता है कि अब कपि सेना उसके घर से प्रस्थान कर चुकी है। नीचे उतर कर वह खुशी के मारे जोर से चीखता है..ले बंदरवा लोय लोय।


बंदर पुराण खत्म हुआ। आप नहा धोकर भोजनोपरांत घर से बाहर निकलने को हुए तब तक आपकी निगाह अपने बाइक पर गयी। गली का कुत्ता उसे खंभा समझ कर मुतार चुका है! अब आपके पास इतना समय नहीं है कि आप पाईप लगाकर गाड़ी धो धा कर उसपर चढ़ें। ‘मुदहूँ आँख कतो कछु नाहीं’ कहते हुए बिना किसी से कुछ शिकायत किये कुक्कुर को आशीर्वचन देते हुए घर से प्रस्थान करते हैं तभी पता चलता है कि आगे सड़क जाम है। पूछने पर पता चलता है कि सांड़ के धक्के से गिरकर एक आदमी  बीच सड़क पर बेहोश पड़ा है। माथे से खून बह रहा है। लोग उसे घेर कर खड़े सोंच रहे हैं कि जिंदा है/ उठाया जाय या मर चुका/ उठाना बेकार है। तब तक पुलिस आ जाती है और सड़क/भीड़ साफ होती है। बुदबुदाते हुए बाइक आगे बढ़ाता हूँ..रांड़, सांड़, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचे तS सेवे काशी। 🙂


दफ्तर से लौटते वक्त बाइक जानबूझ कर धीमे चलाता हूँ। शाम के समय   दौडती भैंसों की लम्बी रेल से भी सड़क जाम हो जाती है। इनके धक्के से साईकिल सवार कुचले जाते हैं। इन पालतू पशुओं के अतिरिक्त छुट्टे सांड़ का आतंक बनारस में बहुतायत देखा जा सकता है।  न जाने कहाँ से कोई सांड़, गैया को दौड़ाते-दौड़ाते अपने ऊपर ही चढ़ जाय !  


ज्येष्ठ को दोपहरी में तपते-तपाते घर पहुँचे तो देखा, लड़का रोनी सूरत बनाये बैठा है! पूछने पर पता चला..साइकिल चलाकर स्कूल से घर आ रहा था कि रास्ते में गली के कुत्ते ने दौड़ा कर काट लिया। चलो भैया, लगाओ रैबीज का इंजेक्शन। अब पहले की तरह 14 इंजेक्शन नहीं लगाने पड़ते नहीं तो बेटा गये थे काम से। सरकारी अस्पताल में ट्राई करने पर सूई मिलने की कौन गारंटी? आनन-फानन में जाकर एक घंटे में मरहम पट्टी करा कर इंजेक्शन लगवाकर घर आये तो चाय पीन की इच्छा हुई। पता चला… दूध नहीं है। दूध बिल्ली जुठार गई! अब कौन पूछे की दूध बाहर क्यों रखा था? जब जानती हो कि बिल्ली छत से कूदकर आंगन में आ जाती है। यह पूछना, अपने भीतर नये पशु को जन्म देने के समान है।:) शाम को फिर से घंटा-आध घंटा के लिए बंदरों का वही आंतकी माहौल। जैसे तैसे नाश्ता पानी करके समाचार देखने के लिए टीवी खोला तो पता चला टीवी में सिगनल ही नहीं पकड़ रहा है। ओह! तो फिर बंदर ने टाटा स्काई की छतरी टेढ़ी कर दी!! भाड़ में जाय टीवी, नहीं चढ़ते छत पर। ब्लॉगिंग जिंदाबाद। देखें, ब्रॉडबैण्ड तो ठीक हालत में है। शुक्र है भगवान का। बंदरों ने फोन का तार नहीं तोड़ा।


खा पी कर गहरी नींद सोये ही थे कि रात में बिल्ली के रोने की आवाज को सुनकर नींद फिर उचट गई। आंय! यह बिल्ली फिर आ गई! दरवाजा तो बंद था! बिजली जलाई तो देखा दरवाजा खुला था। ओफ्फ! अब इसे भगाने की महाभारत करनी पड़ेगी। इस कमरे से भगाओ तो उस कमरे की चौकी के नीचे घुस जाती है। हर तरफ जाली लगी है सिवाय घर में प्रवेश करने वाले कमरे और आँगन में खुले छत के। उसके निकलने के लिए एक ही मार्ग बचा है। घर के सभी सदस्य रात में नींद से उठकर बिल्ली भगा रहे हैं!  मकान मालिक से कई बार कह चुका हूँ कि भैया इस पर भी जाली लगवा दो लेकिन वह भी बड़का आश्वासन गुरू निकला, “काल पक्का लग जाई…!”  बिल्ली जिस छत से घर के आँगन में कूदती है, वहीं से चढ़कर भाग नहीं सकती । इस कमरे से उस कमरे तक दौड़ती फिरेगी। फिर रास्ता न पा किसी के बिस्तर को गीला करते हुए, कहीं कोने बैठ म्याऊँ- म्याऊँ करके रोने लगेगी। बिल्ली न रोये, चुपचाप पड़ी रहे तो भी ठीक। कम से कम रात की नींद में खलल तो न होगी। लेकिन वह भी क्या करे? इस घर में तो दूध-चूहा कुछ  मिला नहीं। पेट तो भरा नहीं। दूसरे घर में नहीं तलाशेगी तो जीयेगी कैसे ?


विकट समस्या है। यह समस्या केवल अपनी नहीं है। आम शहरियों की समस्या है। किसी की थोड़ी किसी की अधिक। लाख जतन के बावजूद किसी न किसी समस्या से रोज दो चार होना ही पड़ता है। जरूरी नहीं कि एक ही दिन बंदर, बिल्ली, कुत्ते, सांड़ सभी आक्रमण कर दें लेकिन यह नहीं संभव है कि आप इनसे किसी दिन भी आतंकित होने से बच जांय। आंतक के साये में तो आपको जीना ही है। सावधान रहना ही है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। मुझे याद है एक बार कई दिन जब फोन ठीक नहीं हुआ तो मैने बी एस एन एल दफ्तर में फोन किया। फोन किसी महिला ने उठाया। मैने उनसे पूछा, “मैडम! मेरे फोन का तार बंदर प्रायः हर महीने तोड़ देता है, इसका कोई परमानेंट इलाज नहीं हो सकता?” उन्होने तपाक से उत्तर दिया..“क्यों नहीं हो सकता? हो सकता है। एक काम कीजिए, आप एक लंगूर पाल लीजिए।” अब इतना बढ़िया आइडिया सरकारी दफ्तर से पाकर तबियत हरी हो गई। मैने सोचा कि इसी तर्ज पर क्यों न हम भी इस समस्या के परमानेंट इलाज के लिए नये-नये आईडियाज की तलाश करें। 


बहुत सोचने के बाद एक बात जो मेरी समझ में  अच्छे से आ गई कि हम लाख परेशान सही लेकिन हमारी परेशानियों के लिए इन जानवरों का कोई दोष नहीं। जिस किसी जीव ने धरती में जन्म लिया उसे भोजन तो चाहिए ही । अपनी भूख मिटाने के लिए श्रम करना कोई पाप तो है नहीं। अब यह आप को तय करना है कि आप इनसे कैसे बचते हैं? आपको छत में कूदते बंदर, गली में घूमते कुत्ते, बीच सड़क पर दौड़ते सांड़ नहीं चाहिए तो फिर इनके रहने और भोजन के लिए परमानेंट व्यवस्था तो करनी ही पड़गी। आखिर जानवरों को इस तरह दर दर इसीलिए भटकना पड़ रहा है क्योंकि आपने अपने स्वार्थ में इनके वन क्षेत्र को शहरी क्षेत्र में बदल दिया। अंधाधुंध जंगलों की कटाई की और खेती योग्य जमीन में कंकरीट के जंगल उगा दिये। क्यों न हम वृद्धाश्रम की तर्ज पर वानराश्रम, कुक्कुराश्रम, नंदी निवास गृह की स्थापना के बारे में शीघ्रता से अपनी सोच दृढ़ करें और सरकार से प्रार्थना करें कि इन जानवरों के रहने, खाने- पीने की समुचित व्यवस्था करें। भले से इसके लिए हमे अपनी आय का कुछ एकाध प्रतिशत टैक्स के रूप में सरकारी खजाने में जमा कराना पड़े। इस तरह हम सभ्य मानव कहलाकर शांति पूर्वक जीवन यापन कर सकते हैं। आप या तो इस आइडिया पर मुहर लगाइये या दूसरा बढ़िया आइडिया दीजिए ताकि हम कह सकें..“व्हाट एन आइडिया सर जी!”

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कंकरीट के जंगल में…

आकाश से

झर रही है

आग

घरों में

उबल रहे हैं

लोग।

 

बड़की

पढ़ना छोड़

डुला रही है

बेना

छोटकी

दादी की सुराही में

ढूँढ रही  है

ठंडा पानी

टीन का डब्बा बना है

फ्रिज।

 

हाँफते-काँखते

पड़ोस के चापाकल से

पापा

ला रहे हैं

पीने का पानी

मम्मी

भर लेना चाहती हैं

छोटे-छोटे कटोरे भी।

 

अखबार में

छपी है खबर

शहर में

कम रह गये हैं

कुएँ

पाट दिये गये हैं

तालाब

नहाने योग्य नहीं रहा

गंगा का पानी

जल गया है

सब स्टेशन का ट्रांसफार्मर

दो दिन और

नहीं आयेगी

बिजली।

………………………

पहली बारिश में….

रात अचानक

बड़े शहर की तंग गलियों में बसे

छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले

जले भुने घरों ने

जोर की अंगड़ाई ली

दुनियाँ दिखाने वाले जादुई डिब्बे को देखना छोड़

खोल दिये

गली की ओर

हमेशा हिकारत की नज़रों से देखने वाले

बंद खिड़कियों के

दोनो पल्ले

मिट्टी की सोंधी खुशबू ने कराया एहसास

हम धरती के प्राणी हैं !

 

एक घर के बाहर

खुले में रखे बर्तन

टिपटिपाने लगे

घबड़ाई अम्मा चीखीं…

अरी छोटकी !

बर्तन भींग रहे हैं रे !

मेहनत से मांजे हैं

मैले हो जायेंगे

दौड़!

रख सहेजकर।

 

बड़की बोली

मुझे न सही

उसे तो भींगने दो माँ!

पहली बारिश है।

 

एक घर के बाहर

दोनो हाथों की उंगलियों में

ठहरते मोती

फिसलकर गिर गये सहसा

बाबूजी चीखे….

बल्टी ला रे मनुआँ..

रख बिस्तर पर

छत अभिये चूने लगी

अभी तो

ठीक से

देखा भी नहीं बारिश को

टपकने लगी ससुरी

छाती फाड़कर !

 

एक घर के बाहर

पापा आये

भींगते-भागते

साइकिल में लटकाये

सब्जी की थैली

और गीला आंटा

दरवज्जा खुलते ही चिल्लाये..

सड़क इतनी जाम की पूछो मत !

बड़े-बड़े गढ्ढे

अंधेरे में

कोई घुस जाय तो पता ही न चले

भगवान का लाख-लाख शुक्र है

बच गये आज तो

पहली बारिश में

अजी सुनती हो !

तौलिया लाना जरा…..

बिजली चली गई ?

कोई बात नहीं

मौसम ठंडा हो गया है !

…………………………….

पहिये

रस्ते में

दिखते हैं रोज ही

कांपते/हाँफते/घिसटते/दौड़ते

अपनी-अपनी क्षमता/स्वभाव के अनुरूप

सड़कों पर भागते

पहिये।

 

इक दूजे पर गुर्राते/गरियाते

पीछे वाले के मुँह पर

ढेर सारा धुआँ छोड़/भागते

बस, ट्रक या ट्रैक्टर के

 

गिलहरी की तरह फुदकते

छिपकली की तरह

चौराहे-चौराहे सुस्ताते

ग्राहक देख

अचानक से झपटते

आटो के

 

चीटियों की तरह

अन्नकण मुँह में दबाये

सारी उम्र

पंक्ति बद्ध हो रेंगते

रिक्शों के

 

आँखों में सिमटकर

गालों पर फूलते

खिड़की के बाहर मुँह निकालकर

पिच्च से थूकते/पिचकते

हारन बजाकर

बचते बचाते भागते

कारों के

 

बचपन के किसी मित्र को

पिछली सीट पर लादे

इक पल ठिठकते, रूकते, कहते..

“कहिए, सब ठीक है न?”

दूसरे ही पल

गेयर बदल, चल देते

स्कूटर के

 

या फिर

आपस में गले मिलकर

ठठाकर हँसते

देर तक बतियाते

साइकिल के

पहिये।

 

रस्ते में

चलते-चलते

इन पहियों को

देखते-देखते

यकबयक

ठहर सा जाता हूँ

जब सुनता हूँ…

‘राम नाम सत्य है!’

 

काँधे-काँधे

बड़े करीब से गुज़र जाती है

बिन पहियों के ही

अंतिम यात्रा।

 ……………………….

दुश्मन कहीं का..!

सुबह ने कहा..

बहुत ठंड है, सो जाओ।

दिमाग ने कहा…

उठो ! ऑफिस जाओ !!

धूप ने कहा..

यूँ उंगलियाँ न रगड़ो

आओ ! मजे लो।

दिमाग ने कहा…

बहुत काम है !

शाम ने कहा….

घूमो ! बाजार में बड़ी रौनक है।

दिमाग ने कहा…

घर में पत्नी है, बच्चे हैं, जल्दी घर जाओ !

रात ने कहा…

मैं तो तुम्हारी हूँ

ब्लॉग पढ़ो ! कविता लिखो।

दिमाग ने कहा…

थक चुके हो

चुपचाप सो जाओ !

हे भगवान !

तू अपना दिमाग छीन क्यों नहीं लेता !!

……………………………………………….

वृक्षों की बातें

भोर की कड़ाकीठंड में, घने कोहरे की मोटी चादर ओढ़े गहरी नींद सो रहे पीपल की नींद, नीम की सुगबुगाहट से अचकचा कर टूट गई। झुंझलाकरबोला, तुमसे लिपटे रहने का खामियाजा मुझे हमेशा भुगतनापड़ता है ! इत्ती सुबह काहे छटपटा रहे हो ?” नीम हंसा..वो देखो..! वे दोपाये मेरी कुछ पतली टहनियाँ तोड़ले गये। देर तक चबायेंगे। पता नहीं क्या मजा मिलता है इन्हें ! पीपल ने उन्हें ध्यान से देखा और बोला, हम्म…येहमें भी बहुत तंग करते हैं। कल एक गंजा फिर आया था मेरी शाख में मिट्टी का घड़ाबांधने । समझता है मैं घड़े से पानी पीता हूँ। तब तक आम ने जम्हाई ली…लगता हैसुबह हो गई। तुम लोग इन दोपायों की छोटी मोटी हरकतों से ही झुंझला जाते हो! ये तो रोज मेरी डालियों को काटकर ले जाते हैं। जलाकर आग पैदा करतेहैं फिर घेर कर गोल-गोल बैठ जाते हैं। इसमे उनको आनंद आता है। उनकी बातें सुनकर, घने जंगली लताओं के आगोश में दुबके, पूरी तरह सूख चुके,पत्र हीन कंकाल में बदल चुके एक बूढ़े वृक्ष की रूह भीतर तक कांप गई! उसने लताओं से फुसफुसा कर कहा…सुना तुमने..! तुम ही मेरे सहारे नहीं पलबढ़ रहे हो। मैं भीतुम्हारे सहारे जीवित हूँ। जब तक लिपटे हो तुम मुझसे, इन दोपायों की नज़रों सेदूर हूँ मैं। शाम को एक बुढ्ढा दोपाया, छोटे-छोटे बच्चों के साथ अक्सर यहां आताहै। मैने सहसूस किया है कि वह मुझे देख बहुत खुश होता है और बच्चों को अपने सीनेसे लगा लेता है।

नीचे, पेड़ों केपत्तों से धरती पर टप टप टप टप अनवरत टपक रही ओस की बूंदों से निकलती स्वर लहरियोंमें डूबी एक बेचैन आत्मा, इन वृक्षों की बातों से और भी बेचैन हो, धीरे से सरकजाती है।  
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